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Tuesday, September 22, 2009

तुम दाल-दाल, हम घास-पात।

ठाकुर साहब का दामाद आया है। घर की मुर्गी बहुत खुश है। उसकी जान बच गई। सास दामाद को दाल बना कर खिलाएगी। इज्जत का सवाल है। दामाद की खातिरदारी अच्छी होनी चाहिए ताकि उसे लगे कि ससुराल में उसका पूरा सम्मान होता है। जिन संपन्न घरानों में यह कहावत आम तौर पर कही जाती थी -घर की मुर्गी दाल बराबर, आज उन घरानों में इस कहावत का इस्तेमाल वर्जित है - दाल की बेइज्जती होती है। दामाद जब अपने घर लौटा तो महीने भर अपनी ससुराल के गुण गाता रहा, 'मैं जितने दिन रहा, सास जी ने रोज दोनों टाइम दाल बना कर खिलाई। नाश्ते में भी दालमोठ जरूर होती थी।'

एक मध्यवगीर्य परिवार में रिश्ते की बात चल रही है। लड़के वाले इस बात पर जोर दे रहे हैं कि बारातियों की खातिरदारी अच्छी होनी चाहिए। खाने में दाल जरूर होनी चाहिए। जब लड़के के पिता ने यह बात तीसरी बार कही तो लड़की का पिता चुप न रह सका, 'समधी जी, हम अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखेंगे। लेकिन एक बात आपको तय करनी है, आपको दहेज चाहिए या दाल?'

मेरे जैसे लोग, जिन्हें मुफ्त की पार्टियों में जाने का अच्छा अनुभव है, जानते हैं कि बुफे में सबसे लंबी लाइन चिकन के डोंगे के आगे लगती है। पांच के बाद छठे आदमी के लिए एक टुकड़ा भी नहीं बचता। अब यही हाल दाल का होने वाला है। सेठ जी के घर में खाना बनाने वाली महाराजिन दाल भिगो रही थी। उसने देखा किसी का ध्यान नहीं है तो चुपके से दाल का कुछ दाना उठा कर अपनी चुन्नी में बांध लिया। लेकिन सेठानी की नजर से यह बात छिपी रही। सेठ लोग ऐसे ही सेठ नहीं बन जाते। चोरी पकड़ी गई तो नौकरानी गिड़गिड़ाने लगी, 'मेरा बेटा बहुत छोटा है। बार-बार पूछता है, दाल कैसी होती है? सोचा ले जाकर ये दाने दिखा दूंगी। खा नहीं सकता, पर देख तो ले।' सेठानी दयालु थीं, बोलीं, 'ठीक है। आज तो छोड़ देती हूं। अगली बार ऐसा नहीं होना चाहिए।'


एक समय, एक कहावत बनाई गई थी- भूखे भजन न होय गोपाला। उसके जवाब में कहा गया- दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ। 'भूखे भजन न होय गोपाला' वाली कहावत आज भी इस्तेमाल की जाती है। लेकिन कोई 'दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ' नहीं कहता। भक्त लोग भड़क जाते हैं।

सुबह-सुबह पत्नी बोली, 'दाल खत्म हो गई है।' मैं तब तक नहाया नहीं था। रात को जो कपड़े पहन कर सोया था, वही मुड़े हुए कपड़े पहन कर किराने की दुकान पर चला गया। अरहर की दाल की ओर इशारा करके पूछा, 'ये क्या भाव है?' दुकानदार ने मेरे कपड़ों पर नजर डाली और बोला, 'बोहनी के वक्त मूड मत खराब कर। जो लेना है उसका भाव पूछो।' फिर वह अपने नौकर पर चिल्लाया, 'कितनी बार बोला, दाल यहां एकदम सामने मत रख! लोग बेकार में भाव पूछ कर टाइम खराब करते हैं।'

समय बदलता है। हालात बदलते हैं। भाषा भी बदलती है। साधारण स्थिति का दामाद, अपनी साधारण स्थिति की ससुराल में पहुंचा। सास ने पूछा, 'कुंवर जी क्या खाओगे?' दामाद बोला, 'दाल।' सास ने पूछा, 'दाल?' 'हां, कोई भी दाल।' तब साली से नहीं रहा गया, 'जीजाजी, ज़रा आईने में शक्ल देख ली होती - ये मुंह और कोई भी दाल!' आजकल मूंग भी मसूर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जो कहावत कभी चतुराई का प्रतीक हुआ करती थी, आजकल वह समाज में आपके स्टेटस का प्रतीक बन गई है। पहले लोग कहते थे - तुम डाल-डाल, हम पात-पात। आजकल कहते हैं - तुम दाल-दाल, हम घास-पात।

आज हर गरीब के घर में यह यक्ष प्रश्न गूंज रहा है - दाल कैसी होती है? मजदूर की बीवी ने बेटे के सामने अल्यूमिनियम की मुड़ी- तुड़ी थाली रख दी। बेटे ने रोटी का एक कौर तोड़ कर मुंह में डाला और पूछा, 'अम्मा, यह दाल क्या होती है?' मां तुरंत टोकते हुए बोली, 'बेटा, धीरे बोल। कहीं बाजार सुन न ले। वरना वह जान जाएगा कि हम लोग एक वक्त रोटी खा लेते हैं।'

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